Monday, June 16, 2008

मैं आरगेनिक नहीं हूँ

मैं आरगेनिक नहीं हूँ
मुझे फ़र्टिलाईज़र और पेस्टिसाईड दे कर
बड़ा किया गया है
रात रात जाग कर
फिज़िक्स की प्रॉब्लम्स
और गणित के समीकरण
हल किए हैं मैंने
अंग्रेज़ी के कई कठिन शब्द
याद किए हैं मैंने

देखो तो सही
अभी 10 साल का हुआ नहीं है
और इसे 100 तक के सारे
प्राईम नम्बर्स
स्क्वेयर रूट्स
और क्यूब रूट्स
मुँह जबानी याद है
मैं इसे
बोर्नविटा पिलाती हूँ
मेधावटी खिलाती हूँ
रोज सुबह 10 बादाम का
हलवा खिलाती हूँ
देखना एक दिन जरूर आई-आई-टी जाएगा
और विदेश जा कर अपना घर बसाएगा

मैं ज़िंदगी के पहले 20-22 वर्ष
इसी तरह गुज़ार देता हूँ
फ़्लैट की चार-दीवारी में
होस्टल के गलियारों में
टेबल-लैम्प की रोशनी में
पंखों के शोर में

ज़िंदगी का मतलब हो जाता है
कोचिंग
कम्पीटिशन
और पैसा कमाना

शरीर बड़ा हो जाता है
लेकिन दिमाग में
आंकड़ें,
फ़ार्मूले,
रेस्निक-हेलिडे के हल
घर कर जाते हैं
त्योहार, रस्में, रीत-रिवाज
सारे के सारे
दरकिनार हो जाते हैं
होली एक हुड़दंग
दीवाली पटाखों का शोर
और पूजा-पाठ एक आडम्बर
बन कर रह जाते हैं

मैं धीरे-धीरे
अलग हो जाता हूँ
अपने परिवार से
अपने समाज से
अपनी संस्कृति से

बड़ा हो जाने पर
मुझे धो-पोछ कर
सजा-धजा कर रख दिया जाता है
वो आते हैं
और मुझे ले कर चले जाते हैं

आज पार्टी है घर में
थोड़ा सलाद के लिए
खीरे-टमाटर-मूली-गाजर भी ले चले
और हाँ उस डाट-नेट प्रोजेक्ट के लिए
ये तीन ठीक रहेंगे
ताजा भी है
दाम भी कम है

जैसे क्रेडिट कार्ड से कोई
सब्जी खरीदता है
वैसे ही ग्रीन कार्ड दे कर
मुझे साथ ले कर चले जाते हैं

और देखते ही देखते
मैं धनाड्यों की फ़्रिज़ की
शोभा बढ़ाने लग जाता हूँ
और उस नियंत्रित वातावरण में
खुद को
सुरक्षित
और भाग्यशाली
समझने लगता हूँ

न आंधी का डर
न तूफ़ां का खौफ़
न चिलचिलाती धूप
न भिनभिनाते मच्छरों का डर

मैं आरगेनिक नहीं हूँ
आरगेनिक होता
तो कब का मिट्टी में मिल गया होता
फ़र्टिलाईज़र और पेस्टिसाईड्स के कारण
फ़्रिज के नियंत्रित वातावरण के कारण
एक लम्बी दासता का बोझ है मुझ पर

यही है दास्तां मेरी
कि
मैं आरगेनिक नहीं हूँ

मर्ज़

बाबुल चाहे सुदामा हो
ससुराल चाहे सुहाना हो
नया रिश्ता जोड़ने पर
अपना घर छोड़ने पर
दुल्हन जो होती है
दो आँसू तो रोती है

और इधर
हर एक को खुशी होती हैं
जब मातृभूमि
संतान अपना खोती हैं

क्यूं देश छोड़ने की
इतनी सशक्त अभिलाषा है?
क्या देश में
सचमुच इतनी निराशा है?

जाने कब क्या हो गया
वजूद जो था खो गया
ज़मीर जो था सो गया
लकवा जैसे हो गया

भेड़-चाल की दुनिया में
देश अपना छोड़ दिया
धनाड्यों की सेवा में
नाम अपना जोड़ दिया

अपनी समृद्ध संस्कृति से
अपनी मधुर मातृभाषा से
मुख अपना मोड़ लिया
माँ बाप का दिया हुआ
नाम तक छोड़ दिया

घर छोड़ा
देश छोड़ा
सारे संस्कार छोड़े
स्वार्थ के पीछे-पीछे
कुछ इतना तेज दौड़े
कि न कोई संगी-साथी है
न कोई अपना है
मिलियन्स बन जाए
यहीं एक सपना है

करते-धरते अपनी मर्जी हैं
पक्के मतलबी और गर्जी हैं
उसूल तो अव्वल थे ही नहीं
और हैं अगर तो वो फ़र्जी है

पैसों के पुजारी बने
स्टाँक्स के जुआरी बने
दोनों हाथ कमाते हैं
फिर भी क्यूं उधारी बने

किसी बात की कमी नहीं
फिर क्यूं चिंताग्रस्त हैं
खाने-पीने को बहुत हैं
फिर क्यूं रहते त्रस्त हैं
इन सब को देखते हुए
उठते कुछ प्रश्न हैं

पैसा कमाना क्या कुकर्म है?
आखिर इसमें क्या जुर्म है?
जुर्म नहीं, ये रोग है
विलास भोगी जो लोग है
'पेरासाईट' की फ़ेहरिश्त में
नाम उनके दर्ज हैं
पद-पैसो के पीछे भागना
एक ला-ईलाज मर्ज़ है

वीसा से वीसा तक

हुआ स्नातक, मिली दिशा
जैसे तैसे हथियाओ वीसा

वीसा आँफ़िसर से झूठ बोला
हनुमान जी को चढ़ा चोला
तिरुपति को दिया पैसा
तब जा के मिला वीसा

डाँलर को ही सदा पूजा
इसके सिवा न दिखा दूजा

पहले आया पासपोर्ट में वीसा
फिर आया पर्स में वीसा
अर्थ चंदन इतना घिसा
छा गई घोर निशा

अच्छा खासा कमाता था
हंसता था, हंसाता था

'लोन' लिया, 'लोनली' हुआ
सुख चैन उड़न छू हुआ
इरादा था बनूगा राजा
बज गया मेरा ही बाजा

ये उलट-फेर कैसे हुआ?
किसकी लगी बद-दुआ?

धन के आगे भी जहान था
इस से मैं अनजान था
पापी पेट का दोष नही
मन को ही संतोष नही

बिल्डिंग ज़रूर बनी अच्छी थी
नींव मगर बहुत कच्ची थी

कलंक

इम्तहान में इन्हें मिले ज्यादा कल अंक थे
कौन जानता था कि ये मेरे माथे के कलंक थे

इनके ही आगे-पीछे हम घूमते भटकते थे
'राजा बेटा, राजा बेटा' कहते नहीं थकते थे
आज ये कहते हैं कि 'माँ-बाप मेरे रंक थे'
कौन जानता था …

ये ठोकते हैं सलाम रोज किसी करोड़पति 'बिल' को
पर कभी भी चुका न सके मेरे डाक्टरों के बिल को
सफ़ाई में कहते हैं कि 'हाथ मेरे तंग थे'
कौन जानता था …

उंचा हैं ओहदा और अच्छा खासा कमाते हैं
खुशहाल नज़र मगर बहुत ही कम आते हैं
किस कदर ये हंसते थे जब घूमते नंग-धड़ंग थे
कौन जानता था …

चार कमरे का घर है और तीस साल का कर्ज़
जिसकी गुलामी में बलि चड़ा दिए अपने सारे फ़र्ज़
गुज़र ग़ई कई दीवाली पर कभी न वो संग थे
कौन जानता था …

देख रहा हूं रवैया इनका गिन गिन कर महीनों से
कोई उम्मीद नहीं बची है अब इन करमहीनों से
जब ये घर से निकले थे तब ही सपने हुए भंग थे
कौन जानता था …

जो देखते हैं बच्चे वही सीखते हैं बच्चे
मैं होता अगर अच्छा तो होते ये भी अच्छे
बुढ़ापे की लाठी में शायद बोए मैंने ही डंक थे
कौन जानता था …

वतन और वेतन

अब तक कहीं भी लगा न मन
दौलत को ही किया सदा नमन
वतन फ़रामोश हम हैं वे तन
जिन्हें न मिला मुंहमांगा वेतन
तो वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

देश ने हमें क्या कुछ न दिया
गंगा जमुना जैसी पावन नदियां
संस्कृत भाषा और सुसंस्कृत लोग
वेद, पुराण, गीता और कर्मयोग

फ़िर भी हमें न रास आया
बाहर क्या ऐसा खास पाया?
कि वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

गलती से दशरथ के बाण से
श्रवण हाथ धो बैठा प्राण से
बाप से छूट गई बेटे की डोर
राम चले अभ्युदय की ओर

हमारे पिता से क्या भूल हुई
कि देश की मिट्टी धूल हुई
और वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

यशोधरा ने जन्मा राहुल को
जंजाल सा लगा बाबुल को
उठ के ऐसे भागे जैसे चोर
बुद्ध चले निर्वाण की ओर

ये किस जंजाल से भागे हम
कि अभी तक नहीं जागे हम
क्यूं वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

आज वतन से दूर हैं हम
झूठ है कि मजबूर हैं हम
बिकने वाले मज़दूर हैं हम
मतलबी और मगरूर हैं हम

छाया कुछ ऐसा ऐश्वर्य का सुरुर
कि एक के बाद एक वतन के नूर
सब वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

ध्येय हमारे सही नहीं
श्रद्धेय हमारे कोई नहीं
जिनके पदचिन्ह मार्ग बता सके
जिनके सत्कर्म हमे जता सके
कि कोस नहीं ईश्वर को
तू थाम ले इस वर को
डगर डगर भटकने वाले बंजारे
ठहर किसी एक का बन जा रे'

प्रतिभा पलायन

पिछड़ा हुआ कह के
देश को पीछे छोड़ दिया
सोने-चांदी के लोभ में
पराये से नाता जोड़ लिया

एक ने कहा
ये बहुत बुरा हुआ
इनके नागरिकता त्यागने से
देश हमारा अपमानित हुआ

दूसरे ने कहा
ये बहुत अच्छा हुआ
इनके नागरिकता त्यागने से
देश हमारा नाग-रिक्त हुआ